गुरुदत्त जी का जन्म लाहौर के एक अरोड़ी क्षत्रिय परिवार में 8 दिसम्बर 1894 में हुआ था। पिता श्री कर्मचन्द निम्नमध्य वित्तीय अवस्था के व्यक्ति थे । इनके यहाँ अनेक पीढ़ियों से वैद्यक का काम होता रहा है। पिता हकीम कर्मचन्द पिप्पल बेहड़ा में अत्तारी का काम करते थे। गुरुदत्त ने मागे आलकर वैद्यक के व्यवसाय को अपनाया था। पिता सीधे-सादे ईश्वरभीरु आर्य समाजी थे। माता सुहावी वैष्णवी आस्थाओं के प्रति नितान्त श्रदालु थीं। परिणामस्वरूप गुरुदत्त जी में सहिष्णुता, आतिथ्य भाव और समन्वय की भावना बचपन से ही परिपक्व हो रही थी अभावग्रस्त परिवार में गुरुदत्त जी का जन्म हुआ था। अतः उनका बचपन और किशोरावस्था सामान्य लोगों की भांति ही व्यतीत हुई । माता सुहावी बच्चों से खूब प्यार करती थीं। बचपन से गुरुदत्त जी को पढ़ने-लिखने का बहुत ही शौक था । आर्य समाज के सांस्कृतिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक आयोजनों में आने-जाने के कारण उनमें जनजीवन को समझने और उनकी समस्याओं का अध्ययन करने की रुचि और क्षमता का विकास होता रहा । यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व में उपन्यासकार की सृजनशीलता, राजनैतिक नेता की दूरदर्शिता और सामाजिक एवं आध्यात्मिक अभिमान का योग्य समन्वय मिलता है।
इन्हें क्रांतिकारियों का गुरु कहा जाता है। जब ये लाहौर के नेशनल कॉलेज में हेडमास्टर थे तो सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु इनके सबसे प्रिय शिष्य थे, जो बाद में आजादी की जंग में फाँसी का फंदा चूमकर अमर हो गए।
अपने उपन्यासों के माध्यम से गुरुदत्त ने प्राचीन भारतीय संस्कृति, सभ्यता और धर्म की प्रशंसा की है और उसकी श्रेष्ठता स्थापित करने का यत्न किया है। वे काँग्रेस और नेहरू के कटु आलोचक थे। वे स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनन्य भक्त थे और आर्य समाज के पालने में पले-बढ़े लेखक-साहित्यकार थे।
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी वैद्य गुरुदत्त ने अपना सम्पूर्ण साहित्य हिन्दी में लिखकर उसकी सेवा की है। वे हिन्दी साहित्य के एक देदीप्यमान नक्षत्र थे। अपनी अनूठी साधना के बल पर उन्होंने लगभग दो सौ उपन्यासों की रचना की और भारतीय संस्कृति का सरल एवं बोधगम्य भाषा में विवेचन किया। साहित्य के माध्यम से वेद-ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने का उनका प्रयास निस्सन्देह सराहनीय रहा है।
उनके सभी उपन्यासों के कथानक अत्यन्त रोचक, भाषा अत्यन्त सरल और उद्देश्य मनोरंजन के साथ जन-शिक्षा है। राष्ट्रसंघ के साहित्य-संस्कृति संगठन ‘यूनेस्को’ के अनुसार श्री गुरुदत्त जी 1960-1970 के दशकों में हिंदी साहित्य में सर्वाधिक पढ़े जानेवाले लेखक रहे हैं।
गुरुदत्त जी ने इतना अधिक लिखा है जितना लोग एक जीवनकाल में पढ़ भी नहीं पाते। सन् 1942 में, 48 वर्ष की आयु में, गुरुदत्त जी का सर्वप्रथम उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक सन् 1942 में विद्या मन्दिर लिमिटेड से प्रकाशित हुई। इस उपन्यास की सफलता से उत्साहित हो वे आजीवन लिखते रहे। उपन्यास-जगत् का उनका यह सफर लगभग दो सौ उपन्यासों के बाद तीन खण्डों में ‘अस्ताचल की ओर’ पर समाप्त होने से पूर्व सिद्ध हो गया कि वैद्य गुरुदत्त उपन्यास-जगत् के बेताज बादशाह थे। वैद्य गुरुदत्त ने न केवल उपन्यास लिखा, बल्कि तात्कालिक सभी समस्याओं पर खूब लिखा। इतिहास, विज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीति, धर्म, दर्शन, आदि अनेक विषयों पर उन्होंने अनेक मौलिक कृतियाँ देकर हिंदी का ग्रन्थ-भण्डार भरा।
गुरुदत्त राष्ट्रवादी विचारक तथा भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा के चिन्तक थे। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के परम उपासक माने जाते थे। उनकी विचारधारा राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत थी। वे भारतीय संस्कृति के चतुर चितेरे थे। उनकी दृष्टि में वैदिक विचारधारा ही भारत को एक्य-सूत्र में बांधने में समर्थ है । उनके उपन्यासों में प्राचीन, मध्यकालीन तथा आधुनिक भारत के समाज, राजनीति, संस्कृति तथा आर्थिक जीवन का चित्रण मिलता है।
गुरुदत्त जी ने अपने उपन्यास-साहित्य में भारतीय जीवन का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, उसका सार इस प्रकार है। भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति सार्थक थी, उसके अन्तर्गत यहाँ का व्यक्ति और समाज, परस्पर सहायक बनकर विकसित होते रहे। बाद में इस संस्कृति के कुछ तत्व क्षयशील हो चले। इसमें सबसे अधिक वर्णाश्रम-व्यवस्था का तत्व हानिकर सिद्ध हुआ। यह व्यवस्था प्रारम्भ में समाज में कार्य-विभाजन का सुविधाजनक आधार लेकर चली थी। इसके अनुसार समाज के लोगों का उनके व्यवसायों के आधार पर चार प्रमुख वर्गों में वर्गीकरण किया गया था। किन्तु बाद में सुविधा प्राप्त वर्गों की दृष्टि में शारीरिक श्रम का मूल्य घट गया। सेवा करने वालों को नीचा कहकर सेवा लेने वालों ने अपने को ऊॅंचा और बड़ा कहा। जो बड़े थे, वे प्रमादवश अपने कर्तव्य को बिलकुल भूल बैठे। उन्होंने अपना बड़प्पन अपनी संतति में भी सुरक्षित रखने के लिए जातिभेद का आधार कर्म न मानकर मनुष्य के जन्म को निश्चित कर दिया।